Scholar / Kavi Parichay

Shreemad Rajchandraji

Shreemad Rajchandraji

श्रीमद्‌ राजचंद्रजी

जन्म तथा बाल्यावस्था

महान तत्त्वज्ञानियों की परम्परारूप इस भारतभूमि में गुजरात प्रदेश में सौराष्ट्र के ववाणिया ग्राम में विक्रम संवत् १९२४, कार्तिक शुक्ल १५ (दिनांक १०-११-१८६७) रविवार के शुभ दिन, रात के दो बजे श्रीमद् राजचन्द्र का जन्म हुआ था। दशाश्रीमाली बनिया जाति में जन्म लेनेवाले श्रीमद् के पिता का नाम पंचाणभाई और माता का नाम देवबाई था। श्रीमद्जी बचपन में "लक्ष्मीनन्दन," बाद में "रायचन्द" और उसके बाद "श्रीमद् राजचन्द्र" के रूप में प्रसिद्ध हुए।

श्रीमद्जी को बहुत छोटी आयु से ही आत्मिकसुख की तीव्र भावना थी और स्मरणशक्ति भी बहुत तेज थी। इनके पिताजी कृष्ण के भक्त थे, किन्तु माताजी को जैनधर्म के संस्कार थे; इसलिए घर में "प्रतिक्रमण सूत्र" आदि की पुस्तकें पढ़ने मिलीं और जैनधर्म के प्रति प्रीति बढ़ने लगी। परिवार में दादाजी, माता-पिता, छोटे भाई मनसुखभाई और चार बहनें थीं।

जातिस्मरणज्ञान

श्रीमद्जी की सात वर्ष की आयु थी, तब एक प्रसंग बना। ववाणिया में अमीचन्द नाम के एक गृहस्थ रहते थे। उन्हें श्रीमद्जी से विशेष प्रेम था। एक दिन सर्प के काटने से उनकी मृत्यु हो गई। यह बात सुनते ही श्रीमद्जी ने अपने दादा से पूछा कि 'मरण' का क्या मतलब होता है ? दादाजी को लगा कि मरण की बात करने से बालक को डर लगेगा, इसलिए उन्होंने बात को टाल दिया, परन्तु श्रीमद्जी ने 'मरण' शब्द पहली बार सुना था, इसलिए उन्होंने बार-बार इसका अर्थ पूछा। तब दादाजी ने कहा कि अमीचन्द मर गये, इसका अर्थ यह है कि शरीर में से जीव निकल गया, अब उनका शरीर हलन-चलन नहीं कर सकेगा। इसलिए शरीर को तालाब के पास ले जाकर जला देंगे।

श्रीमद् ने तालाब के पास बबूल के पेड़ पर चढ़कर देखा तो दूर अमीचन्द का शरीर जलता हुआ दिखाई दिया औऱ बहुत सारे लोग उसे घेरकर खड़े हुए थे। यह देखकर उन्हें विचार आया कि अरे ! मनुष्य को जलाने में कितनी क्रूरता! यह विचार आते-आते उनका आवरण दूर हो गया और उन्हें पूर्व जन्म का जातिस्मरणज्ञान हो गया। उसके बाद जूनागढ़ का किला देखने के लिये गए, तब जातिस्मरणज्ञान में विशेष वृद्धि हुई।

छोटी उम्र का पुरुषार्थ

श्रीमद्जी ने विद्यालय में विशेष पढ़ाई नहीं की थी, तो भी वे संस्कृत, प्राकृत और अन्य भाषाओ के जानकार थे। छोटी उम्र में ही उन्हें तत्त्वज्ञान का बोध हो गया था। यह एक काव्य से स्पष्ट होता है -

लघुवय थी अदभुत थयो, तत्त्वज्ञान नो बोध;
ऐ ज सूचवे एम के, गति-अगति कां शोध ?
जे संस्कार थवो घटे, अति अभ्यासे कांय
विना परिश्रम ते थयो, भवशंका शी त्यांय?

श्रीमद्जी बाल्यावस्था से ही आत्मा के अमरत्व और क्षणिकत्व के सम्बन्ध में बहुत तार्किक बुद्धि से विचार करते थे। उन्होंने जैनधर्म को कुल परम्परा से स्वीकार नहीं किया था, अपितु अपने तर्क बल से बाल्यावस्था में ही सत्यपने का निर्णय़ किया था। उन्होंने जैनधर्म के सिद्धान्तों को जीवन में अपनाया था और उसके बाद ही मुमुक्षुओं को अनुसरण का उपदेश देते थे।

अवधान प्रयोग

श्रीमद्जी की स्मरणशक्ति अदभुत थी। उन्होंने छोटी आयु में ही अवधान प्रयोग करना प्रारम्भ कर दिया और धीरे-धीरे सौ अवधान तक पहुँच गये। विक्रम संवत् १९४३ में १९ वर्ष की आयु में मुम्बई में शतावधान प्रयोग प्रतिष्ठित गृहस्थों और हाईकोर्ट के न्यायाधीश की उपस्थिति में किया, तब सभी देखनेवाले आश्चर्यचकित रह गये। अवधान सम्बन्धी समाचार २४-०१-१८८७ के 'टाइम्स ऑफ इण्डिया', 'मुम्बई समाचार', जामे जमशेद 'गुजराती पायोनियर' आदि समाचार-पत्रों में सविस्तार प्रकाशित हुए थे। मुख्य न्यायाधीश सर चार्ल्स सारजंट ने उन्हें विदेश जाकर यह प्रयोग करने का आमन्त्रण दिया, परन्तु श्रीमद्जी को यश अथवा धन की बिलकुल इच्छा नहीं थी। इतना ही नहीं, पर यह प्रयोग आत्मकल्याण में बाधक है - ऐसा अनुभव होने पर उसके बाद उन्होंने यह प्रयोग कभी नहीं किया।

उनकी स्पर्शन शक्ति भी अत्यन्त विलक्षण थी और ज्योतिष विद्या में भी वे पारंगत थे।

गृहस्थाश्रम

विक्रम संवत् १९४४ महा शुक्ला १२ के दिन १९ वर्ष की आयु में पोपटलाल जवेरी की सुपुत्री झबकबेन के साथ उनका विवाह हुआ। पूर्व कर्म का उदय समझकर श्रीमद्जी ने विवाह किया, परन्तु उनकी उदासीनता और वैराग्य बढ़ते ही गये। वे स्पष्टरूप से मानते थे कि "कुटुम्बरूपी कोठरी में रहने से संसार बढ़ता है और एकान्त में रहने से जितने संसार का क्षय हो सकता है, उसका शतांश भी कुटुम्ब में रहने से नहीं हो सकता"। इस विषय में एक मुमुक्षु को पत्र में लिखा है कि – "जिसे संसार से स्पष्ट प्रेम करने की इच्छा है, उसने ज्ञानी के वचन सुने ही नहीं अथवा ज्ञानी के दर्शन भी किये ही नहीं - ऐसा तीर्थंकर कहते हैं"।

श्रीमद्जी की चार सन्तान हुई - छगनभाई, जवलबेन, काशीबेन और रतिलाल।

सफल व्यापारी

सज्जन व्यापारीपना और धर्मसाधना का योग शायद ही देखने में आता है। श्रीमद्जी का जवाहरात का व्यापार होने पर भी दुकान में कोई न कोई धार्मिक पुस्तक और उसकी नोट-बुक सदा साथ रहती थी। व्यापार की बात पूरी होते ही वे शास्त्र पढ़ने बैठ जाते थे अथवा कई विचार अपनी नोट-बुक में लिख लेते थे। जिज्ञासु/मुमुक्षुओं को लिखे खत के अलावा जो उनके लेखों का प्रकाशन हुआ है, उसमें से अधिकांश भाग नोट-बुक में से लिये गये हैं।

श्रीमद्जी विश्वासपात्र व्यापारी के रूप में प्रसिद्ध थे और उनका व्यवहार भी बहुत ही प्रामाणिक था। वे बहुत सन्तोषी थे। धन या हीरे को वे कंकर ही समझते थे। उनकी सज्जनता के कई उदाहरण हैं। जैसे कि एक आरब के व्यापारी को नुकसान न हो, इसलिए व्यापारिक समझौते को रद् कर दिया। दूसरे एक प्रसंग में एक व्यापारी को हीरा के सौदे में कीमत बहुत बढ़ जाने से बहुत ही नुकसान हो रहा था, तभी उन्होंने सौदे का कागज ही फाड़ते हुए कहा कि : 'राजचन्द्र दूध पी सकता है, खून नहीं।'

कवि-लेखक

श्रीमद्जी में अपने विचारों की अभिव्यक्ति पद्य में करने की सहज क्षमता थी। उनकी मुख्य आध्यात्मिक काव्य रचनाओं में - वैराग्यबोधिनी बारह भावना, तृष्णा की विचित्रता, अमूल्य तत्त्व विचार (१७ वर्ष), मूल मार्ग रहस्य (२१ वर्ष), जिनवाणी स्तुति, भक्ति के २० दोहे (२४ वर्ष), आत्मसिद्धि शास्त्र (२९ वर्ष), परमपद प्राप्ति की भावना - अपूर्व अवसर (३० वर्ष) आदि प्रमुख हैं।

१४२ दोहे रूप अलौकिक "आत्मसिद्धि शास्त्र" श्री रचना श्री सौभाग्यभाई के कहने पर और सभी मुमुक्षुओं के सदभाग्य से आसो कृष्णा १, विक्रम संवत् १९४२, नडियाद में मात्र डेढ़ घण्टे में पूर्ण की थी। उसमें आत्मा की सिद्धि का मार्ग उन्होंने दर्शाया है। 'आत्मा है, वह नित्य है, वह कर्ता है, वह भोक्ता है, मोक्ष है और मोक्ष का उपाय है - इन छह पद की श्रद्धा यदि ज्ञानीपुरुष के अभिप्राय से जीव करे, अर्थात् ज्ञानीपुरुष जिसे 'यथार्थ श्रद्धा' के रूप में स्वीकार करें - ऐसी सर्व ओर से अविरुद्ध श्रद्धा करे तो सम्यग्दर्शन को प्राप्त करके परद्रव्य और परभावों से भिन्नता का अनुभव करके, इष्ट-अनिष्ट वृत्तियों से विराम लेकर, सर्व दुःखों से मुक्त हो' - यह आत्मसिद्धि शास्त्र का तात्पर्य है। पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी ने राजकोट में विक्रम संवत् १९९५ में आत्मसिद्धि शास्त्र पर अपूर्व प्रवचन किये थे, जो कि पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुए हैं। मुमुक्षुओं को लिखे हुए उनके पत्र बहुत ही गहराई और रहस्यों से भरे हुए हैं। श्रीमद्जी ने अन्य मत का निराकरण भी सुन्दर और स्पष्टरूप से किया है। महात्मा गाँधी ने भी दक्षिण अफ्रीका से श्रीमद्जी के साथ पत्र व्यवहार करके बहुत स्पष्टीकरण प्राप्त किया था।

एकान्त चर्या

मोहमयी मुम्बई नगरी में रहते हुए भी श्रीमद्जी की ज्ञानाराधना निरन्तर चल रही थी। क्यों कि यह उनका मुख्य और अनिवार्य कार्य था। उद्यमरत जीवन में शान्त और स्वस्थ चित्त से एकान्त में आत्माराधना करना उनके लिए सहज हो गया था। किन्तु समय मिलते ही वे जंगल या पर्वतों के एकान्त स्थानों में पहुँच जाते थे। गुजरात के चरोतर, ईडर आदि अनेक क्षेत्रों में उनका विचरण हुआ था।

वीतराग वाणी का आदर

श्रीमद्जी को वीतराग देव-शास्त्र-गुरु के प्रति बहुत आदर था। जिनेश्वर की वाणी की महिमा करते हुए श्रीमद्जी लीखते हैं :

अनंत भाव भेदथी भरेली भली, अनंत अनंत नयनिक्षेपे व्याख्यानी छे।
सकल जगत हितकारिणी, हारिणी मोह, तारिणी भवाव्धि, मोक्षचारिणी प्रमाणी छे।।
ऊपमा आप्यानी जेने तमा राखवी ते व्यर्थ, आपवाथी निज मति मपाई मैं मानी छे।
अहो राजचन्द्र ! बाल ख्याल नथी पामता ए, जिनेश्वरतणी वाणी जाणी तेणे जाणी छे।।.

श्रीमद् राजचन्द्रजी दिगम्बर सन्तों को नमस्कार करते हुए लिखते हैं कि 'हे कुन्दकुन्द आचार्य ! आपके वचन भी स्वरूप के अनुसन्धान के विषय में इस पामर को उपकारभूत हुए हैं। इसके लिए मैं आपको अतिशय भक्ति से नमस्कार करता हूँ।' इस तरह गुणों का बहुमान, सत्कार और विनय किया है।

सम्यग्दृष्टि आत्मा

श्रीमद्जी को शुद्ध सम्यग्दर्शन की प्राप्ति विक्रम संवत् १९४७ में २४ वर्ष की आयु में हुई। अपनी ही 'हाथनोंध' में लिखते हैं -

ओगणीससे ने सुडतालीसे समकित शुद्ध, प्रकाश्यूँ रे;
श्रुत अनुभव वधती दशा, निज स्वरूप अवभास्यूं रे।
धन्य रे दिवस आ अहो !

विक्रम संवत् १९९६, कार्तिक शुक्ला १५ को एकावतारी पवित्र पुरुष श्रीमद्जी की जन्म जयन्ती के प्रसंग पर बहुमानपूर्वक भावांजलि देते हुए पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी ने ये शब्द कहे थे - 'तीर्थंकर भगवन्त का देह परम औदारिक, स्फटिक रत्न जैसी हो जाती है और पास से दर्शन करनेवाले को जातिस्मरणज्ञान हो जाता है एवं उसके सात भव दिखाई देते हैं। ऐसे प्रभु का जन्म दिन महाकल्याणक कहलाता है। "जो तीन लोक के नाथ" ऐसे पद के धारक हैं, उनका परम कल्याणक जन्मोत्सव इन्द्र मनाते हैं और तीन लोक में खुशहाली छा जाती है। दो घड़ी के लिए नरक के दुःखी जीवों को भी शान्ति का अनुभव होता है। उसी प्रकार जिसने यह पंचम काल में सत्य को प्रसिद्ध किया और अपने अनन्त भवों का अन्त करके एक ही भव बाकी रहे - ऐसी पवित्रदशा अपने आत्मा में प्रगट की - ऐसे पवित्र पुरुष का अधिक से अधिक बहुमान होना चाहिए। उनके जन्म दिवस की आज जयन्ती है। धन्य हैं उन्हें! मैं निश्चितरूप से कहता हूँ कि गुजरात-काठियावाड़ में (सौराष्ट्र में) वर्तमान काल में मुमुक्षु जीवों का कोई परम उपकारी है तो वे श्रीमद् राजचन्द्र है। उन्होंने गुजराती भाषा में आत्मसिद्धि लिखकर जैन शासन की शोभा बढ़ाई है। इस काल में उनके जैसा महान पुरुष मैंने नहीं देखा।'उनके एक-एक वचन में गहरा रहस्य है। यह सत्समागम के बिना समझ में नहीं आ सकता। उन्होंने एक ही मुख्य बात कही है कि आत्मा की पहचान किये बिना कुछ भी करो परन्तु भव नहीं कम हो सकते। आत्मा को समझे बिना किसी काल में भी छुटकारा नहीं। आज, कल, लाख, करोड़ वर्ष बाद भी या कभी भी यह तत्त्व समझे - श्रद्धा करे तो ही छुटकारा है। श्रीमद्जी का जीवन समझने के लिए मताग्रह-दुराग्रह से दूर रहकर वह पवित्र जीवन को मध्यस्थपने देखना चाहिए, ज्ञानी की विशाल दृष्टि के न्याय से विचार करना चाहिए। उनकी भाषा में अपूर्व भाव भरा है। उसमें वैराग्य, उपशम, विवेक, सत्समागम - सब कुछ है। वे बालक से लेकर आध्यात्मिक सत्स्वरूप की पराकाष्ठा तक पहुँचे थे। गहरे से गहरा न्याय व गम्भीर अर्थ उनकी लेखनी में है। व्यवहार नीति से लेकर पूर्ण शुद्धता - केवलज्ञान तक का कथन उसमें है। कोई ज्ञानबल के अपूर्व योग से यह लिखा गया है। उनके हृदय में वीतराग शासन की प्रभावना हो, सनातन जैन धर्म जयवन्त वर्ते, ऐसे निमित्त होने की गहराई में भावना थी; पर उस समय मताग्रही लोगों का समूह अधिक था, और गृहस्थ वेश होने से उनके पास जाने में और परमार्थ प्राप्त करने में बाह्य दृष्टिवाले जीवों को अपने पक्ष का आग्रह विघ्नरूप हुआ था।

श्रीमद्जी को उस समय के द्रव्य, क्षेत्र, काल की जानकारी थी, इसलिए प्रसिद्धि में नहीं आये। उन्होंने कहा है कि मेरा लेखन, मेरा शास्त्र मध्यस्थ पुरुष ही समझ सकते हैं, विचार कर सकते हैं। महावीर के कोई एक भी वाक्य को यथार्थरूप से समझो। शुद्ध अन्तःकरण के बिना वीतराग के वचनों को कौन स्वीकार करेगा ? यह सब अन्तर के उदगार थे। वर्तमान में श्री समयसारजी परमागम शास्त्र पर प्रवचन हो रहे हैं, उसकी प्रभावना करनेवाले भी श्रीमद् राजचन्द्र थे। अपनी उपस्थिति में ही उन्होंने 'परमश्रुत प्रभावक मण्डल' की स्थापना की थी। उनका उद्देश्य महान आचार्यों के आगम शास्त्रों को संशोधित करके प्रकाशित करवाने का था। उस मण्डल ने १९ वर्ष पहले आचार्यवर कुन्दकुन्द भगवान द्वारा रचित महासूत्र समयसारजी शास्त्र की एक हजार प्रतियाँ प्रकाशित की थीं। वह शास्त्र (हाथ से लिखा हुआ) जब उनके हाथ में (लींबडी में) पहली बार आया तब दो पृष्ट पढ़ते ही रुपयों से भरी हुई थाली मँगाई। जैसे हाथ में हीरा आने पर जौहरी उसकी परीक्षा करता है, वैसे ही पूरे जिनशासन का रहस्य श्री समयसार हाथ में आते ही पूर्व के संस्कार के अपूर्व भाव जाग उठे और वह अपूर्व परमागम शास्त्र लानेवाले भाई को श्रीमद्जी ने दोनों हाथ भरकर रुपया दे दिया। इस पुस्तक को प्रकाशित करने की उनकी अतीव भावना थी। इस तरह १९ वर्ष पूर्व श्री समयसार की प्रभावना उनके निमित्त से हुई। वर्तमान में काठियावाड़ में इस परमागम का भलीभाँति लाभ लिया जा रहा है। इस समयसार के रचयिता श्री कुन्दकुन्द आचार्य महासमर्थ दिगम्बर मुनि थे। वे इस काल में स्वयं महाविदेहक्षेत्र में साक्षात् त्रिलोकनाथ सर्वज्ञ भगवान सीमन्धर प्रभु के पास गये थे। वहाँ उन्होंने आठ दिन तक समवसरण में भगवान की वाणी सुनी थी। वहाँ से आकर समयसार की श्लोकबद्ध रचना की। उसी समयसार शास्त्र की वर्तमानकाल में सर्व प्रथम प्रसिद्धि करनेवाले श्रीमद् राजचन्द्र हैं। इसलिए उनका अनन्त उपकार है। समयसार का लाभ अभी अनेक भाई-बहिन ले रहे हैं, यह श्रीमद् का ही उपकार है। अभी समयसार की दो हजार प्रतियाँ गुजराती में छप रही हैं। इसका लाभ लेनेवालों को भी श्रीमद् उपकारी है।

अन्तिम समय

विक्रम संवत् १९५६ में श्रीमद्जी ने सर्व व्यवहार से निवृत्ति लेकर सर्वसंग परित्यागरूप दीक्षा लेने के लिए माता के पास अनुमति भी ले ली थी परन्तु उनकी शारीरिक अवस्था दिन-प्रतिदिन बिगड़ती गई। अनेक उपचार कराने के बावजूद भी वे स्वस्थ नहीं हुए। उन्होंने अपने छोटे भाई मनसुखभाई से कहा - 'भाई मनसुख ! दुःखी मत हो, मैं अपने आत्मस्वरूप में लीन हो रहा हूँ।' इस तरह श्रीमद्जी चैत्र कृष्णा ५, मंगलवार को दोपहर दो बजे राजकोट में समाधि में लीन हुए।

श्रीमद्जी का अन्तिम सन्देश :

सुख धाम अनन्त सुसंत चही,
दिन रात रहे तदध्यान महीं;
पर शांति अनंत सुधामय जे,
प्रणमुं पद ते, वर ते, जय ते।
राजकोट, चॊत्र शुक्ल ९,१९५७)

श्रीमद् ने अन्ति सन्देश में 'वर ते जय ते' इन शब्दों का प्रयोग किया है। इसका अर्थ यह है कि साधक स्वभाव की जयकार है। इन शब्दों में बहुत गम्भीर भाव भरा है। पूर्ण शुद्ध ऐसा चैतन्यघन आत्मा भेदज्ञान के बल द्वारा जागृत होता है और उस जाति का उग्र पुरुषार्थ होने पर पूर्ण सुखस्वरूप प्रगट होता है। जिसे मुनि आदि धर्मात्मा अर्थात् योगीजन चाहते हैं, उस पूर्ण स्वरूप के लक्ष्य से श्रीमद् राजचन्द्रजी ने अन्तिम सन्देश कहकर मुमुक्षुओं के प्रति परम उपकार किया है। स्वयं समाधिमरण की घोषणा में 'वर ते जय ते' ऐसा कहकर (जैसे कोई शास्त्र पूर्ण करते हुए पूर्ण मांगलिक करे वैसे ही श्रीमद् ने इस काव्य रचना में) अन्तिम मांगलिक किया है। अपना स्वाधीन शिव सुख प्रगट करने के लिए सबसे पहले स्वरूप की श्रद्धा करो, उसे ही जानो, उसका ही अनुभव करो - ऐसा कहा है।